
Siyah Raat!
Maneesha Kachroo
सियाह रात
सर्दी की इस सियाह रात में ज़िंदा दफना रहे हैं हमको,
बुग्ज़ इतना की आखरी ख्वाईएश भी न पूछेंगे !
करले वो कयास की हमें फ़नाह कर दिया,
दफ़्न है, पर हम तो बीच बनकर फिर फूटेंगे।
दरख्त की जड़ें तो इसी ज़मीन में रहेंगी अहमक़,
देखते जाओ हम शाखाएं कहाँ तक ले जाएंगे |
जिन गलियों कूचों में हँसके झगड़के बीता बचपन,
वहाँ क्या अब मूक दर्शक बनके जाएंगे?
बेघर करके मकान जला दें हमारा,
राबता कहाँ मगर वो मिटा पाएंगे।
लिहाफ बिछाते हुए, लिहाफ ओढ़ते हुए,
दिल टूटते हुए, खिरचियाँ चुभते हुए,
अश्क़ सूखते हुए, खून गिरते हुए,
ख़्वाब मरते हुए, दर्द जीते हुए,
रुकावटे रोकते हुए, कामयाब होते हुए
कई मौसम आएंगे अहमक़, कई चले जाएंगे।
सर्दी की इस सियाह रात में ज़िंदा दफना रहे हैं हमको,
बुग्ज़ इतना की आखरी ख्वाईएश भी न पूछेंगे !
सर्दी की इस सियाह रात ज़िंदा दफना रहे हो हमको,
क़सम सरज़मीन की, बहार की उस सुबह, हम वापस लौट आएंगे।